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धर्म कभी अधर्म नही करता

​धर्म की महिमा से बड़ी , आज उसकी चर्चा है । सनातन , हिंदुत्व , संस्कृति , मंदिर , जैसे प्रत्यक्ष अप्रत्यक्ष अवयवों के साथ बाबा बागेश्वर की धूम मची है । एहसास होता है की धर्म , धर्म न होकर प्राणवायु बन गया है । है तो जीवित रहेंगे नही तो मार दिए जायंगे । धार्मिक आख्यानो में धर्म को स्वभाव रूप में समझ रहे थे  या ‘धर्मों रक्षति रक्षित:’ ‘अथवा धारयति इति धर्म:’जैसी परिभाषाओं से धर्म की व्याख्या करते थे । आज के परिदृश्य में धर्म का कुछ विचित्र स्वरूप और विचित्र परिभाषा हमें सहमाती है । धर्म का पाखंड , आस्था बढ़ाने की बजाय निराशा पैदा कर रही है ।धार्मिक कठोरता इसकी मर्यादाओं को लांघ चुकी है । धर्म के नाम पर हत्या व बलात्कार का साक्षी तालिबानो के साथ मोनू मानेसर व मणिपुर भी है । भले ही हम स्वीकार नही करे लेकिन धार्मिकता के नाम पर किया जाने वाला गुनाह , धर्म के मर्म पर करारा प्रहार करता है । यदि ऐसा ही होता रहा तो धर्म विमुखीकरण धार्मिक नैराभ्य की प्रकिया से सैलाब पैदा हो जाएगा । जिस संस्कृति को स्थापित करने का प्रयास हो रहा है वह  तार-तार हो जाएगी। ना सनातन बचेगा न बाबा बागेश्वर । कार...

निवेदन

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  ​हो सकता है समाज बेटी के इस कुकृत्य पर अचंभित हो या लड़के का समाज उसे सम्मानित करदे या इन दोनो की जोड़ी को लैला – मजनू से भी ज्यादा असीम प्रेमी माना जाए या हो सकता है कुछ फिल्म निर्माता इस अमर प्रेम पर कोई सनसनाती फिल्म बना दे और यह फिल्म आस्कर अवार्ड से सम्मानित कर दी जाए या हो सकता है इन अमर प्रेमियों को राजनैतिक दल अपना  बना ले अथवा समाज में छिपे हुए हजारों ऐसे गैर चिन्हित जोड़ियां इन्हे अपना भगवान मान ले लेकिन उस मां बाप की अकाल मृत्यु और उनकी तड़पती आत्मा का जिम्मेदार कौन होगा ? क्या ऐसे माता पिता की आत्माएं उस समाज को माफ कर पाएगी जहां उन्होंने अपने औलादों पर ही अधिकार खो दिया या उस सरकारी नियमो कानूनों , व्यवस्थाओं,संचार माध्यमों और शैक्षिक संस्थानों को माफ कर पाएंगे जिसने वफादार आज्ञा कारी सुख दुख के साथी और बुढ़ापे की कर्णधार संतानों से उम्मीद का विनाश कर दिया इस दुर्लभ प्रकरण द्वारा की जाने वालीं हत्याओं का गुनहगार कौन है और ऐसा क्यों हों रहा है और ऐसा क्यों होने दिया जा रहा हैं,इसका उत्तर कौन देगा या कहां से मिलेगा ?  इस दुर्लभ प्रकरण द्वारा की जाने वालीं हत्...

परिदृश्य : अजीब देश की सजीव कहानी

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​ "विभीषिका ”अर्थ व अनर्थ दोनो में विचित्र है ।यदि यह अनर्थ के साथ वातावरण में फैल जाए तो जीवन कैसा होगा ,सोचिए मत । अमृतकाल के आनंद युग में मगन जनता अमृतवर्षा में नाच रही है । नृत्य की भाव विभोरता में नगनत्व में बदल रही है । महान देश के महान देवता की कृपा अनवरत बरस रही है।  अमृत वर्षा में स्वर्ण व रजत की  बूँदे देश की धरती को पड़पड़ा कर पीट रही है ।शेयर सूचिकांग जैसा इंद्रधनुष क्षितिज में टिमटिमा रहा है । विकासवादी हवा नथुनों को रगड़ रही है । चुनाव ,लोकतंत्र ईवीएम ,अम्बानी-अदानी, मीडिया-अदालत, ईडी- सीबीआईं जैसी आवाज़ें बादलों की तरह उमड़ घुमड़ रहे है । मेंढकों का एक ख़ास झुंड आकस्मिक अमृत वर्षा से नाराज़ होकर उछल -कूद मचा रहे है । अमृतवर्षा के स्पर्श से सभी गिरगिट मगरमच्छ जैसे दिख रहे है ।  चार पायदानो पर टिके लोकतंत्र के खंडहर के चारों तरफ़ गहरी खामोशी है । लोकतंत्र की इमारत पर वज्रपात जैसा हुआ है ।       ओह! विहंगम दृश्य "उड़ी छत-धंसी फ़र्श -फटी दिवार ,लोकतंत्र का खंडहर और स्तब्ध लोग । पक्ष और विपक्ष गुत्थम- गुत्था हो रहे है ।बहस और संवाद चिल्लाहट व...

मरती संवेदना के चश्मदीद

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​“भयग्रस्त या लालच”राजनीति आज युवाओं को ऐसा ही बनाना चाहती है और दुर्भाग्य से हम युवा ऐसा बनना पसंद भी कर रहे है । आज युवाओं के मस्तिष्क में सिर्फ़ तार्किकता है ,संवेदनशीलता नही ।परिणाम स्वरूप हर व्यक्ति सिर्फ़ और सिर्फ़ अपने लिए जीना चाहती है । और संसार की सारी सुविधाओं को किसी भी शर्त पर पाने को बेचैन रहती है । भय व लालच में युवाओं की मनोवृत्ति मानो मौसम से भी तीव्र बदलते हुए विध्वसंता की तरफ़ अग्रसर हो रही है ।जिन युवाओं से पारिवारिक सम्बंध नही निभाए जा रहे है उनसे राष्ट्रहित में सहयोग की कल्पना करना “गंगा में जौ बोने के समान है ”। एक समय में शैक्षिक पाठ्यक्रम में “ईदगाह” का हामिद आदर्श होता था ,राम-कृष्ण ,कबीर-रहीम ,सूर-तुलसी के संगीतमय साहित्य ,पंचतंत्र ,प्रेमचंद्र की कहानियाँ आदि होती थी जो की मानव मस्तिष्क में संवेदना प्रकट करती थी ।परंतु वर्तमान में आज ये नदारद है । परंतु आज का ऐसा वातावरण देख कर खुद शर्मिंदगी महसूस होती है ।बचपन तार्किकता का ग़ुलाम बनकर स्वार्थ में खो गया है ।झूठी पहचान व प्रसंशा के लिए युवा आज दिवाने बने फिर रहे है ।अर्थ और काम के प्रति भारतीय युवाओं के नज़रि...

राजनीति नही राष्ट्रधर्म की ज़रूरत

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आज के समय में पार्टियों में कांग्रेस ,भाजपा व अन्य पार्टियो में होड़ मची है सत्ता पाने को ।सत्ता में बैठने के लिए दिखावा कुछ कर करते और सत्ता मिलने के बाद परिणाम उन्ही लोगों को भुगतना पड़ता है जिसके कारण ये सत्ता में विराजमान है । पार्टियों को ये समझना चाहिए की भ्रष्टाचार सामान्य भारतीयों की त्रासदी है कोई मनोरंजन का खेल नही ।पार्टियाँ आज आम आदमी के विवशता , भावनाओं ओर बेचैनी का मज़ाक़ उड़ा रहे है । आज के समय में राजनीति या कह सकते है कि राजनीति आधुनिक दौर का एक ऐसा निकृष्ट व्यापार हो गया है जिसमें लेन देन के सिवाय कोई अन्य विकल्प ही नही दिखायी प्रतीत होता । यह राजनीति न तो लोकतंत्र को परिभाषित करती ह और न ही इस प्रकार की राजनीति से सुरक्षित राष्ट्र की उम्मीद की जा सकती है। सत्ता मे आज इस तरह की बेशर्मी  है कि राजनेता देश लूटते रहे और उन पर कोई उंगली भी न उठाए। यदि लोकतंत्र का यही सत्यार्थ है तो आम आदमी के, मेरे और आप जैसे लोगो के सुरक्षित भविष्य की क्या संभाबना है? जितनी कॉम्पिटिशन आज इनमे चल रही है, गली चौराहो के विभिन्न दलो के कार्यकर्ता जबरन चंदा बसूलते नज़र आएंगे और इस सम्भावन...

ग़रीबी का सम्बंध ..

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  उम्र से लम्बी सड़क पर.....  कहने को अपनी अपनी किस्मत पर...... न जाने कौन है यह हुनरमंद हैं..... न जाने कहाँ से ही यह आये....... जो तमाम ग़म होने पर भी इतना प्यारा मुस्कुराए ॥ ______________________________________ तन पे ग़रीबी की छाया ज़रूर है , कुछ मिल जाने की लालसा ज़रूर है लोगों से लेकिन  ये भी है की पेट की भूख चीज़ है ही ऐसी जो माँगने पे मजबूर कर देता है ।गलती इनकी नही ,गलती उस ग़रीबी की है गलती उस भूख की है जो सताती है इनको लेकिन इनके चेहरे को देख के लगता है की एक अमीरी इनके अंदर है ।पल भर के लिए इनको देख कि सब कुछ भूल के इनके मुस्कान पे ध्यान चला जाता है की इतना कुछ होते हुए भी ये हमें हसना सिखा रहे है ,जितना है उतने में संतुष्ट प्रतीत नज़र आ रहे है ।पर यहाँ मजबूरी स्पष्ट रूप से नज़र आ रही है ,मजबूरी इंसान को बहुत कुछ करने पे मजबूर कर देती है ।मजबूरी चीज़ ही ऐसी है की या तो ये इंसान को बिगाड़ देती है ग़लत रास्ते पे ले जा के या तो ये संवार देती ह बहुत कुछ सिखा के । ओर इस मजबूरी के पीछे सिर्फ़ ओर सिर्फ़ एक बेरोज़गारी का हाथ है ।बेरोज़गारी एक दिमक की तरह देश को अंदर ...