परिदृश्य : अजीब देश की सजीव कहानी

"विभीषिका ”अर्थ व अनर्थ दोनो में विचित्र है ।यदि यह अनर्थ के साथ वातावरण में फैल जाए तो जीवन कैसा होगा ,सोचिए मत ।

अमृतकाल के आनंद युग में मगन जनता अमृतवर्षा में नाच रही है । नृत्य की भाव विभोरता में नगनत्व में बदल रही है । महान देश के महान देवता की कृपा अनवरत बरस रही है। अमृत वर्षा में स्वर्ण व रजत की  बूँदे देश की धरती को पड़पड़ा कर पीट रही है ।शेयर सूचिकांग जैसा इंद्रधनुष क्षितिज में टिमटिमा रहा है । विकासवादी हवा नथुनों को रगड़ रही है । चुनाव ,लोकतंत्र ईवीएम ,अम्बानी-अदानी, मीडिया-अदालत, ईडी- सीबीआईं जैसी आवाज़ें बादलों की तरह उमड़ घुमड़ रहे है । मेंढकों का एक ख़ास झुंड आकस्मिक अमृत वर्षा से नाराज़ होकर उछल -कूद मचा रहे है । अमृतवर्षा के स्पर्श से सभी गिरगिट मगरमच्छ जैसे दिख रहे है । चार पायदानो पर टिके लोकतंत्र के खंडहर के चारों तरफ़ गहरी खामोशी है । लोकतंत्र की इमारत पर वज्रपात जैसा हुआ है ।


      ओह! विहंगम दृश्य "उड़ी छत-धंसी फ़र्श -फटी दिवार ,लोकतंत्र का खंडहर और स्तब्ध लोग । पक्ष और विपक्ष गुत्थम- गुत्था हो रहे है ।बहस और संवाद चिल्लाहट व धक्कामुक्की में बदल रही है ।एक तरफ़ पाक चल रहा है ,दूसरी तरफ़ पाक जल रहा है । पुलवामा से गलवान तक जवान खोजे जा रहे है ।स्वास्थ्य ,शिक्षा ,महंगाई ,ग़रीबी,न्याय ,बेरोज़गारी जैसे शब्द लुप्त हो गए ,सार्वजनिक संस्थान भी निजी महल हो गए । कोविड मृतकों के आत्मशांति के लिए चिकित्सालय कब बनेंगे , वर्तमान पीढ़ी का भविष्य कैसे सुरक्षित होगा ? रूसी क्रूड आयल सस्ता होने पर भी डीज़ल पेट्रोल गैस सिलेंडर क्यों गर्मा रहे है 

चुनावी बांड किस दल को कितना और क्यू मिलते है ,ये सवाल पूछेगा कौन ,ईडी-सीबीआई का ख़ौफ़ जो है ।अयोध्या -मथुरा ,काशी के वासी भी मौन है । साफ़ सुथरे आवरण में लिपटे ब्यूरोक्रेसी आज़ादी या ग़ुलामी की बहस में उलझी है ।प्रशाशक और सेवक के परिभाषा अभी तक नही गढ़ी गयी ।। इसलिए ब्यूरोक्रेसी ने सोचना व समझना छोड़ दिया है । ब्यूरोक्रेट अब टेक्नोक्रेट बनकर रह गया है  । आर्टिफ़िशियल एजेंसी पर रीसर्च करने को उतावला है ।


प्रोजेक्ट ,इन्वेस्टमेंट ,प्रमोशन और मलाईदार पद के दायरे में सिमटा इन महामानवो का क़बीला सिर्फ़ स्वामियों के संकेत को समझता है । संवेदनायुक्त ब्यूरोक्रेड्स हारते हुए भी लड़ कर थोड़ा विश्वास बनाए हुए विभागीय जाँच के फंदे में लटकते दिखाई देते है ।

न्याय के मंदिर अंधेरे में कभी कभी ही चमकते है । न्यायदेवताओं की विवेकदृष्टि भविष्य को ध्यान में रखकर फ़ैसले देने लगी है । न्याय की खोज ,न्याय में भरोसा ,न्याय की पारदर्शिता में अन्याय नाम की ऋंखला गहरी पैठ बना रखी है । गली - दर -गली ,सड़क - दर - सड़क ,न्याय होता दिख रहा है


कभी ग़ोलीयो से ,कभी तलवारों से ,कभी गाड़ी पलटने से  , कभी बुलडोज़र से ।परेशान लोग कहाँ जाये ,किसके सामने हाथ फैलाए ,किससे न्याय की उम्मीद रखे ।इसलिए गहरी चुप्पी ओढ़ लेते है । हमारे शांति व अहिंसा का यही सारांश है । न्यायप्रिय देवता भी गवाहों एवं साक्ष्यों के परिवर्तन से सहमा हुआ है । स्वतंत्र कहलाने वाली मीडिया की स्वतंत्रता स्वयं संदेहात्मक है । अपनी रुचि या मजबूरी के प्रभाव से सारे सच को ढकने या सारे झूठ को खोलने का बेहतरीन अभ्यास आज के दौर में दिखायी दे रहा है । देश के लोगों के भाग्य अब स्वयं उसके  कर्म में है । 

सहयोग करने वाली सत्ताए लालच के समुद्र में डूब रही है । प्रिंट व इलेक्ट्रॉनिक मीडिया का सत्ता के प्रति दीवानगी इस हद तक है कि नोट में भी चिप लगा देती है । सार्थक बहसें हिंदू-मुस्लिम तक सीमित है । समाज का आईना बनने का दम्भ भरने वाली मीडिया आईने  में  स्वयं का चेहरा नही देख पा रही है ।

लालच की पत्रकारिता किसी देश की ग़ुलाम बनाने के लिए पर्याप्त है ।यही तो विभीषिका है । जहाँ नागरिक ही ग़ुलाम बन जाता है  । यह किसी देश का परिदृश्य नही ,वैश्विक विनाश लीला है जहाँ सच ,न्याय ,ईमानदारी रोज़ झूठ ,अन्याय ,और बेईमानी के हाथों शर्मिंदा  होते है ।दर्द से उभरती चीखे मधुर संगीत बन जाती है ।अन्याय से निकली कराह में मंदिरो की घंटिया सुनायी पड़ती है ।


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